कायदे से देखा जाए तो वैश्यायों से बदतर होती हैं तथाकथित आधुनिक सोच वाली फेमिनिस्ट....जो केवल मजबूरी में और जबरन अपना तन बेचती है ..... लेकिन ये फेक फेमिनिस्ट तो अपनी आत्मा तक को तार तार कर दूषित कर देती हैं जिनका ना कोई धर्म है ना ईमान , जानबूझकर दूसरी महिलाओं के घर को तोड़ती हैं ..... कहते हैं कि सात घर तो चुड़ैल भी छोड़ देती है ... लेकिन इन बलाओं से क्या कोई बच सकता है ?????? तंत्र में जो डाकिनी , शाकिनी का ज़िक्र आता है , शायद वो भी इन्हें देखकर तौबा कर जाएं .... लेकिन ये तो वो बला हैं जो झूठ से सच का क़त्ल करती हैं!!!!! "प्रेम नाम है मेरा मैं वो बला हूं जो शीशे से पत्थर को तोड़ता हूं ...." कुछ वैसा ही ! मीडिया रिसर्च करके देख लें कितने ऐसे किस्से मिलेंगे जहां झूठी पॉपुलैरिटी के लालच में कितने पुरुषों और लड़कों को फेमिनिज्म की वेदी पर बलि कर दिया गया !!!!! सबसे डरावना पहलू तो ये है कि ये छदम नारीवाद आम घरों में और जनमानस की सोच में टीवी सीरियल्स और एक प्रोपेगंडा के तहत प्रवेश कर चुका है! बेटी होना ज़रूरी है एक , बेटी ही माता पिता का ख़याल रख सकती है .... लेकिन क्या बहुएं किसी की बेटियां नहीं ......!

करुणा , केयर , स्नेह जिम्मेदारी संभालना आदि ये सारे सॉफ्ट स्किल्स लड़कियों में , भगवान स्वत: ही जन्म से भर देता है लेकिन इन फेमिनिस्ट की हार्ड ड्रिंक इनके सॉफ्ट स्किल्स को फ़्लैश कर देती है और जो रह जाता है इनमें वो है गटर जैसी बदबूदार मानसिकता ...... तभी तो इन्हें एक पुरुष में कोई रिश्ता नज़र नहीं आता , कुछ नज़र आता है इन्हें , तो बस , हर पुरुष में सिर्फ एक मर्द नज़र आता है वो भी शोषक , बलात्कारी अपराधी , और ये जो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ पुरुषों की इज़्ज़त का चीर हरण करती हैं .... उसका कौन हिसाब देगा ????? पोलिस स्टेशन न जाने कितनी फाइल्स झूठे केसों से भरी पड़ी हैं चाहे वो इव टीजिंग के नाम पर हों या दहेज उत्पीड़न या बलात्कार के नाम पर ...... ।इन्हीं लोगों के कारण सही लोगों के लिए न्याय पाना दुष्कर हो जाता है।


आधी से अधिक फेमिनिस्ट के सिम्पटम्स स्त्रियों से अधिक मर्दों जैसे होते हैं , उनका पहनावा , बोली आदि केवल उनकी हीन भावना का ही प्रदर्शन करते हैं .... जैसे कहते हैं चौबे जी गए थे छब्बे जी बनने और लौटे दुबे जी बनकर .... पुरुषों का विरोध करते करते ना ये स्त्री रह पाती ना मर्द ..... अब आगे क्या ही कहें.... छाप तिलक सब छीनी रे ..... ! सबरीमाला मामले में ये फेमिनिस्ट चिल्ला चिल्ला कर मंदिर में पूजा करने की बात कर रही थीं , और हक़ीक़त में पूजा , अर्चना , श्रद्धा से इन डाकनियों का चाहे कोई वास्ता ना हो !!!!!!

क्या इनके मुंह में दही जम जाते हैं या ज़बान पर ताले लग जाते हैं जब दूसरे पंथों की बात आती है !!!!!! क्यूं किसी मस्ज़िद में किसी स्त्री की एंट्री नहीं होती .....क्यूं वेटिकन सिटी में कोई पोपनी बनती ...... क्या है हिम्मत इनमें ये बोलने का !!!!!


मैनुस्ट्रेशन पीरियड में मंदिरों में प्रवेश करने के लिए उत्पात मचाने वाली क्या घंटा भी जानती हैं सनातन के बारे में ?????? जिस संस्कृति के रंग में रंगकर ये पितृसत्तात्मक व्यवस्था या समाज के ख़िलाफ़ गले फाड़ती हैं , सही तो ये है बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद , बोले तो जिस समाज में ये नहीं पता मां के कितने पति , कौन सा बच्चा किस पिता की संतान , तो ऐसे बिखरे समाज को पिता का महत्व कैसे पता होगा .....परिवार , पिता , माता का एक धागे में गूंथे परिवार का महत्व एक संस्कारवान व्यक्ति ही समझ सकता है जैसे हीरे की कद्र एक जौहरी ही कर सकता है !!!!!
कायदे से देखा जाए तो वैश्यायों से बदतर होती हैं तथाकथित आधुनिक सोच वाली फेमिनिस्ट....जो केवल मजबूरी में और जबरन अपना तन बेचती है ..... लेकिन ये फेक फेमिनिस्ट तो अपनी आत्मा तक को तार तार कर दूषित कर देती हैं जिनका ना कोई धर्म है ना ईमान , जानबूझकर दूसरी महिलाओं के घर को तोड़ती हैं ..... कहते हैं कि सात घर तो चुड़ैल भी छोड़ देती है ... लेकिन इन बलाओं से क्या कोई बच सकता है ?????? तंत्र में जो डाकिनी , शाकिनी का ज़िक्र आता है , शायद वो भी इन्हें देखकर तौबा कर जाएं .... लेकिन ये तो वो बला हैं जो झूठ से सच का क़त्ल करती हैं!!!!! "प्रेम नाम है मेरा मैं वो बला हूं जो शीशे से पत्थर को तोड़ता हूं ...." कुछ वैसा ही ! मीडिया रिसर्च करके देख लें कितने ऐसे किस्से मिलेंगे जहां झूठी पॉपुलैरिटी के लालच में कितने पुरुषों और लड़कों को फेमिनिज्म की वेदी पर बलि कर दिया गया !!!!! सबसे डरावना पहलू तो ये है कि ये छदम नारीवाद आम घरों में और जनमानस की सोच में टीवी सीरियल्स और एक प्रोपेगंडा के तहत प्रवेश कर चुका है! बेटी होना ज़रूरी है एक , बेटी ही माता पिता का ख़याल रख सकती है .... लेकिन क्या बहुएं किसी की बेटियां नहीं ......! करुणा , केयर , स्नेह जिम्मेदारी संभालना आदि ये सारे सॉफ्ट स्किल्स लड़कियों में , भगवान स्वत: ही जन्म से भर देता है लेकिन इन फेमिनिस्ट की हार्ड ड्रिंक इनके सॉफ्ट स्किल्स को फ़्लैश कर देती है और जो रह जाता है इनमें वो है गटर जैसी बदबूदार मानसिकता ...... तभी तो इन्हें एक पुरुष में कोई रिश्ता नज़र नहीं आता , कुछ नज़र आता है इन्हें , तो बस , हर पुरुष में सिर्फ एक मर्द नज़र आता है वो भी शोषक , बलात्कारी अपराधी , और ये जो अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ पुरुषों की इज़्ज़त का चीर हरण करती हैं .... उसका कौन हिसाब देगा ????? पोलिस स्टेशन न जाने कितनी फाइल्स झूठे केसों से भरी पड़ी हैं चाहे वो इव टीजिंग के नाम पर हों या दहेज उत्पीड़न या बलात्कार के नाम पर ...... ।इन्हीं लोगों के कारण सही लोगों के लिए न्याय पाना दुष्कर हो जाता है। आधी से अधिक फेमिनिस्ट के सिम्पटम्स स्त्रियों से अधिक मर्दों जैसे होते हैं , उनका पहनावा , बोली आदि केवल उनकी हीन भावना का ही प्रदर्शन करते हैं .... जैसे कहते हैं चौबे जी गए थे छब्बे जी बनने और लौटे दुबे जी बनकर .... पुरुषों का विरोध करते करते ना ये स्त्री रह पाती ना मर्द ..... अब आगे क्या ही कहें.... छाप तिलक सब छीनी रे ..... ! सबरीमाला मामले में ये फेमिनिस्ट चिल्ला चिल्ला कर मंदिर में पूजा करने की बात कर रही थीं , और हक़ीक़त में पूजा , अर्चना , श्रद्धा से इन डाकनियों का चाहे कोई वास्ता ना हो !!!!!! क्या इनके मुंह में दही जम जाते हैं या ज़बान पर ताले लग जाते हैं जब दूसरे पंथों की बात आती है !!!!!! क्यूं किसी मस्ज़िद में किसी स्त्री की एंट्री नहीं होती .....क्यूं वेटिकन सिटी में कोई पोपनी बनती ...... क्या है हिम्मत इनमें ये बोलने का !!!!! मैनुस्ट्रेशन पीरियड में मंदिरों में प्रवेश करने के लिए उत्पात मचाने वाली क्या घंटा भी जानती हैं सनातन के बारे में ?????? जिस संस्कृति के रंग में रंगकर ये पितृसत्तात्मक व्यवस्था या समाज के ख़िलाफ़ गले फाड़ती हैं , सही तो ये है बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद , बोले तो जिस समाज में ये नहीं पता मां के कितने पति , कौन सा बच्चा किस पिता की संतान , तो ऐसे बिखरे समाज को पिता का महत्व कैसे पता होगा .....परिवार , पिता , माता का एक धागे में गूंथे परिवार का महत्व एक संस्कारवान व्यक्ति ही समझ सकता है जैसे हीरे की कद्र एक जौहरी ही कर सकता है !!!!!
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