मनुष्य एक जीवन में हजारों जीवन जीता है। उन सभी जीवन के अनुभवों को मिलाकर उसका व्यक्तित्व बनता है। जब उम्र का तक़रीबन आधा सफ़र तय कर लेता है तब वह अपने अनुभव संसार से बांटना चाहता है। अपने पदचिन्ह छोड़ना चाहता है, अपने अनुभव की पूँजी किसी को संभलवाना चाहता है। आज के आपाधापी के दौर में किसके पास इतना समय है जो किसी के अनुभव से स्वयं को संवार सके, दो घड़ी किसी के पास बैठ सके, बतिया सके। ऐसे में मनुष्य किसी ऐसे माध्यम की ओर आकर्षित होता है जहाँ वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सके। जीवनानुभवों की पोटली आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रख सके। जिसको जहाँ आधार मिलता है, वह उस कला की ओर मुड़ जाता है। अपनी आंतरिक उथल-पुथल, बेचैनी को करार देने के लिए अक्सर साहित्य उनका सहारा बनता है। यूँ तो प्रत्येक साहित्यकार में एक गुबार भरा होता है जिसे लेखन के माध्यम से वे समय-समय पर प्रस्तुत करते रहते हैं लेकिन यतीश कुमार गुबार नहीं लाये, वह लायें हैं “अंतस की खुरचन”। शीर्षक ही जाने कितने आयाम समेटे है, जहाँ अन्दर जो जमा है वो आखिर है क्या, इस पर विचार किया जाए तो अक्सर “खुरचन” शब्द ही व्यापक अर्थ समेटे होता है। खाद्य पदार्थ में अक्सर रबड़ी की खुरचन का स्वाद कुछ अलग ही होता है तो कढाई में बनी कढ़ी की खुरचन का अलग। इसी प्रकार अनुभव की आँच पर पककर जब कविता का सृजन होता है, उसके स्वाद से पाठक का मन तरंगित हो उठता है और कवि का लेखन सफल हो जाता है। ऐसे ही कविता संग्रह के साथ यतीश कुमार उपस्थित हैं जहाँ मानवीय संवेदनाओं और भावों के सम्मिश्रण से कविताएँ आज के समय पर कहीं कटाक्ष करती हैं तो कहीं सहज रूप से सहला देती हैं। कहीं भावों की समिधा से आहुति देकर अपना योगदान देती हैं।

संग्रह की पहली ही कविता ‘किन्नर’, किन्नरों की पीड़ा का जीवंत दस्तावेज बनकर उभरी है। कविता चंद शब्दों में एक विस्तृत वितान बुनती है। वो जो उपेक्षित व बहिष्कृत रहे समाज से, उनकी पीड़ा को शब्दों में बाँधना किसी भी लेखक के लिए कहाँ आसान होता है। ऐसे में कवि ने जो बिम्ब दिया है वो उन्हें रेखांकित करने के लिए अति उत्तम प्रतीत होता है, कवि कहते हैं –

“अब मैं इंसानों की श्रेणी से इतर

इंसानों को ही आशीषें बाँटता त्रिशंकु हूँ”

वाकई समाज ने क्या उनकी स्थिति त्रिशंकु सी नहीं बना दी? अधर में लटका हुआ, जिसके पाँव के नीचे न धरती है न सर पर कोई छत, ऐसी स्थिति में उन्हें क्या लगता होगा यह विचारणीय है । कवि पुनः कहते हैं –

 

“मौत मुक्ति है

और

मातम से है मुझे परहेज़”

इन पंक्तियों से उनके अंतर्मन और जीवन का सत्य, अकाट्य सत्य की तरह उभरकर आता है।

बेशक कहा जा सकता है आज उन्हें भी समाज ने स्वीकार लिया है, समानता का अधिकार उन्हें प्राप्त है, किन्तु क्या यह पूर्णतया सत्य है?  क्या उन्हें आज भी तिरष्कृत दृष्टि से नहीं देखा जाता? वास्तविक समानता उसी दिन होगी जिस दिन उनको उनके अस्तित्व के साथ स्वीकारा जाएगा। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं–

“और अब भी मैं

समाज की बजाई हुई ताली में

एक चीख़ मात्र हूँ”

हाशिये पर खड़े होने की उनकी पीड़ा को ये पंक्तियाँ न केवल उद्घाटित करती हैं अपितु सोचने पर विवश करती हैं। आखिर किस मनुष्यता, समानता का ढोल हम पीटते हैं, जब एक इंसान को उसके अस्तित्व के साथ इस इक्कीसवीं सदी में भी नहीं स्वीकार सकते, अपनी जड़ताओं से मुक्त नहीं हो सकते। यह प्रश्न मानो कवि समाज के सम्मुख उठा रहे हैं और सोचने को विवश कर रहे हैं।

कवि आज के समय का कटु यथार्थ ‘झुंड’ कविता के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। आज झुंड के जुटने, कोई भी कदम उठाने की एक नयी संस्कृति ने जन्म लिया है। आज के परिदृश्य पर गहरा कटाक्ष करती है कविता और उसकी पंक्तियाँ –

“झुंड नहीं जानता

कि मौत भी

किसी के मुस्कुराने के

लम्हे हो सकते हैं”

केवल ये पंक्तियाँ काफी हैं आज के समय को रेखांकित करने हेतु। एक ऐसे भयावह दौर में जीने को विवश हैं हम।

“विद्रोह का सफ़र तय करना है

और विरोध की क़लम लिये बैठा हूँ”

विद्रोह और विरोध के मध्य इंसानी फितरत स्वयं शामिल हो जाती है तब किस राह से मिलेगी मुक्ति या मनचाहा? कहाँ तय किया जा सकता है? वो भी ऐसे समय में जहाँ आपकी हर चाल पर शनी की टेढ़ी नज़र हो। आज के दौर में इंसान चुप रहकर भी जिंदा रह जाए, गनीमत है। आपका एक शब्द और सर कलम। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर जाने कितने पहरे लगे हैं – कहीं धर्म के तो कहीं जाति के तो कहीं राजनीति के। आज तो आपके कुछ ही शब्दों से एक नया महाभारत संभव है, ऐसे में प्रश्न उठता है क्या यह गूंगे होने का दौर है? इंसानी फितरत इतनी बदल कैसे गयी? कौन से बीज बो दिए गए जिसमें इंसान की फितरत का चमड़ा अकड़ा ही रहता है जबकि अकड़, कहा जाता है, मुर्दे की पहचान होती है। कवि भी कहते हैं –

“मुर्दे सीधा सोते हैं

आदमी नींद में भी टेढ़ा रहता है

ग़फ़लत है

चीज़ें सीधी बेहतर हैं या टेढ़ी”

यह कैसी विडंबना है एक ऐसे दौर में जीने को विवश हैं हम जहाँ सब बदल रहा है। कुछ भी मौलिक नहीं रह पा रहा। प्लास्टिक मणि के इस दौर में संवेदनाएँ भी जब प्लास्टिक की हो रही हैं उसमें कवि चिंतित है। वह चाहता है कुछ तो मौलिकता इंसान में बची रहे। प्रकृति बची रहे बिल्कुल उसी तरह जिस तरह फूलों की खुशबू कोई चुरा नहीं सकता। उसी तरह बचा रहना चाहिए थोडा सा अपनापन अन्यथा सूखे ठूंठ में परिवृत्त होती संवेदनाओं के दौर में जीवन महज यंत्र बनकर रह जायेगा, एक मशीन, फिर कैसे बचा पाओगे अपनी संस्कृति? अपनी धरोहरें? इस कविता के माध्यम से कवि यह प्रश्न समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा है। ‘विडंबना’ सीरीज की कविताओं में वर्तमान की विसंगतियों पर कवि दृष्टिपात कर रहे हैं।

‘आज वसंत है’ कविता में फूलों के माध्यम से उनकी उपयोगिता और उनके अस्तित्व पर प्रकाश डालते हुए कवि ने चंद लफ़्ज़ों में बड़ा वितान बुना है। जिनकी बानगी से उनके फलक का दर्शन प्रस्तुत होता है–

“इबादत का बाज़ार गरम है

फूल अब प्रचार चिह्न है

एक फूल पोस्टरों पर बेवजह खिलता है

फूल से मेरा प्रेम भग्न हो रहा है

नज़र ऊपर और हाथ जिनके नीचे हैं

उन्हें और किसी चीज़ से नहीं

फूल की माला पहना कर

विचारों से मारा जा सकता है”

कितना मानीखेज अर्थ समेटे है कविता। यहाँ विचारों के फूलों से भी बदला जा सकता है परिदृश्य, बस आवश्यकता है समाज की चाल को पहचानने की, कदम आगे बढ़ाने की। किसी भी देश की तस्वीर बदल सकते हैं विचार। एक विचार ही तो था ‘अहिंसा’ और देश की तकदीर बदल गयी। बस आज के दौर को किसी ऐसे ही विचार की आवश्यकता है, मानो यही कहने का उद्देश्य है कवि का।

वक्त के साथ दर्द का स्वरूप भी बदल गया है। दर्द कभी निजी अनुभूति हुआ करता था लेकिन अब सार्वजनिक हो गया है एक अर्थ ‘यंत्रणा का विलाप’ कविता का यह निकलता है तो दूसरा अर्थ व्यापकता लिए है। जहाँ दर्द केवल निजी नहीं है बल्कि सामूहिक हो गया है। आज चहुँ ओर दर्द का ही साम्राज्य है। पीड़ा अंतहीन हो चुकी है। कोई उससे अछूता नहीं मानो कवि कहना चाहता है कभी वो दौर था कोई-कोई ही पीड़ा का भागिदार होता था, अक्सर हँसी, प्यार-मोहब्बत के ठहाकों संग गुजर बसर हुआ करती थी लेकिन आज के दौर में जाने कहाँ लुप्तप्राय हो गयी हैं महफ़िलें। आज हर कोई अकेला है और दर्द के सागर में डुबकी लगाते हुए दुखी है। अब इसे सब सार्वजनिक करने लगे हैं, ये कैसी विडंबना है-

 

“यंत्रणा का विलाप

घरों से निकल

एक-दूसरे के गले मिल रहे हैं

इन सबके बीच

अपने एकान्तवास से निकल

दर्द अब एक सामूहिक वक्तव्य है”

यह कैसी विडंबना है जहाँ दर्द, पीड़ा भी वक्तव्य बन गयी है, इसका अस्तित्व भी भौतिकता की आंधी में उड़ चुका है। महज दिखावे का आवरण लपेटे सभी अपने दुखों का बाजार सजाये बैठे हैं।

‘दृश्य में शोर’ – शीर्षक ही विचार करने को विवश करता है। वर्तमान को यदि किसी पेंटर से चित्रित करने को कहा जाए तो यह शीर्षक उसके लिए सबसे उपयुक्त होगा। आज शांति की खोज में यदि कोई निकले तो जरूरी नहीं वह बुद्ध बन ही जाए। जीवन हो या समाज, कोई पहलू ऐसा नहीं बचा जहाँ दो क्षण सुकून के कोई जी सके। आपाधापी के इस दौर में जब आपके सामने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जाता है, एक झूठ को सभी के द्वारा बार-बार बोला जाता है तब देखने वाले के लिए वही अंतिम सत्य बन जाता है। एक ऐसे दौर में जब लोकतंत्र के चौथे खम्बे की बात आती है तब तो यह बात उस पर सटीक बैठती है। सारे कौए एक स्वर में काँव-काँव करते हैं और दृश्य अपनी उपयोगिता खोकर महज शोर में तब्दील हो जाता है। तभी कवि कहता है –

 

“लोकतंत्र का चौथा खम्भा

पसर रहा चारों ख़ाने चित

समाचार अदृश्य है

दृश्य में बस शोरगुल है”

सबका आँखों देखा सच है यह कविता। समय के साथ बदलती गाँव की तस्वीर और मनुष्य के व्यवहार को सहजता से ‘इन दिनों’ कविता में उकेरा गया है। न अब गाँव बचे न वहाँ की सादगी और सहजता, न ही बचा वहाँ का रिश्तों में बिखरा सोंधापन। वक्त सब बदल देता है। न वो बेफिक्री के दौर रहे, न खिलखिलाहटें, न बहसें। सब यांत्रिक हो गया। आज शहरों का शोर गाँव में भी पसर गया है। न चाय की गुमटियाँ बचीं, न चौराहे, न आपस में होती वो बहसें, जिनके शोर में भी एक सोंधापन बचा रहता था। अपनेपन की तस्वीर बदल चुकी है। दोस्तों के मजबूत कन्धों पर सर रख रोने भर से एक ताकत मिलती थी। आज के दौर में आपके रोने पर कन्नी काट ली जाती है। यह है इस समय का कटु यथार्थ। कवि कहते हैं –

 

“सूती काँधे थे वे

सिल्क में तो अश्क भी फिसल जाते हैं”

कितना खूबसूरत बिम्ब विधान है इन पंक्तियों में, कुछ भी कटु या तिक्त नहीं, एक सहज प्रवाह मानो दुशाले में लपेटकर किसी ने समय के मुंह पर तमाचा जड़ा हो और कह रहा हो – क्या इतना बदलना जरूरी था?

कभी-कभी कुछ अहसास, कुछ बातें, कुछ रचनाएँ केवल महसूस करने के लिए होती हैं। उन विचारों, उन भावों में रमण करने के लिए मौन रह जाना होता है और अपने अन्दर डुबकी लगानी होती है। ऐसी ही एक कविता है ‘आज’। कविता पढ़कर लगता है क्या ऐसा ही नहीं हो रहा? क्या इंसान ने प्रकृति को असंतुलित नहीं कर दिया? क्या इंसान ने अपनी आवाज़ बदल दी है – वो मनुष्य से प्रकृति और जीव जंतुओं में तो हस्तांतरित नहीं हो गया अथवा जीव जंतुओं के आचार विचार, स्वाभाव ग्रहण कर मनुष्य ने मनुष्यता को शर्मिंदा कर दिया है। पशु भी शर्मसार हैं इंसान के स्वार्थ के आगे और छोड़ रहे हैं अपनी प्रकृति मनुष्य के हित में, दुबक रहे हैं अपनी माँद में छोड़कर अपना खूंखारपन क्योंकि जान गए हैं उनसे भी खूंखार मनुष्य है और जीवित रहने के लिए उन्हें मनुष्य को सौंपने होंगे अपने सभी पैने हथियार। इस कविता की जितनी व्याख्या की जाए कम ही होगी। आज मानव ने मानवता को अपने कृत्य से इतना शर्मसार कर दिया है कि मनुष्य छोड़िए पशु-पक्षी तक शर्मसार हो जाएँ। एक अंधी दौड़ में, बिना अपना हित पहचाने दौड़ रहे हैं सब। कभी तो ठोकर लगेगी ही, लेकिन तब संभालने को कोई नहीं होगा,  प्रकृति भी नहीं। वो भी अपने हाथ खड़े कर देगी। वो चेताती रही है समय-समय पर, लेकिन विकास की अंधी दौड़ ने सब नेस्तनाबूद कर दिया है। आखिर मनुष्य इतना स्वार्थी किसलिए हो रहा है ? मानो यह प्रश्न कवि छोड़ रहे हैं, जिसकी एक बानगी से सम्पूर्ण परिदृश्य सामने उपस्थित हो जाता है –

“नेवला बिल में घुस गया है

सांप अब बिल में नहीं रहता

शहर में घुस आया है

सियार भी अब आसमान ताके आवाज़ नहीं लगाता

मुंह झुकाए रिरियाता है

और इंसान ने इन सबकी शक्ल चुरा ली है”

 

मेरे ख्याल से इसके बाद कुछ कहने को नहीं बचता। केवल विचार करने की आवश्यकता है ये कहाँ आ गए हम?

संक्रमित समय में कहीं न कहीं कोरोनाकाल का यथार्थ उभरकर आता है। ऐसी अनेक कविताएँ हैं,  जिनमें रोजमर्रा के जीवन का हस्तक्षेप है जिससे कोई अछूता नहीं रहता है, लेकिन उस पर बात कोई नहीं करना चाहता। किन्तु यतीश कुमार की दृष्टि उन्हीं जगहों पर जाकर रूकती है, जिसका दिग्दर्शन उनकी अनेक कविताओं में होता है।

हम मनुष्य हैं और हमारे जीवन में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं। कभी-कभी चारों ओर से इतना दबाव होता है लगता है कैसे सब पूरा करेंगे। शायद हम अपनी क्षमता को जानते ही नहीं। उससे पूर्ण रूप से परिचित ही नहीं। यदि परिचित होते तो कभी यह प्रश्न स्वयं से नहीं करते।

‘सृजन दबाव का विस्तार है’ – कितनी गहन और मानीखेज पंक्ति है यह, जो न केवल जीवन के अपितु इस सृष्टि के भी भेद खोलती है। दबाव में ही मनुष्य अपना बेहतरीन देता है। डेड लाइन ही आपसे आपका सौ प्रतिशत निकलवाती है और आप अपनी क्षमता से परिचित होते हैं,  इसलिए दबाव को अन्यथा नहीं लेना चाहिए क्योंकि जो पल उससे मुक्त होते हैं उसी पल रिक्त हो जाते हैं और सोच में पड़ जाते हैं अब आगे नया क्या? अर्थात अपनी क्षमता से परिचित होने के उपरान्त मनुष्य और मजबूत बन जाता है, ज्यादा परिपक्व हो जाता है। उसका आत्मविश्वास बढ़ जाता है और वह नयी चुनौतियों के लिए स्वयं को तैयार पाता है। दबाव देखा जाए तो वास्तव में मनुष्य के अन्दर संभावना का एक बीज बो देता है, अंकुरण होकर ही रहता है। तभी अपनी क्षमताओं को मनुष्य पूर्णतः जान पाता है। ऐसा ही भाव “दबाव और सृजन” कविता का है जिसकी एक बानगी से उसका सम्पूर्ण रूप आपके सम्मुख साक्षात् प्रकट हो जाता है-

 

“सच तो यह है कि

सारी जीवंत उत्पत्ति

दबाव में आकर उभरती है

चाहे कोख में शिशु हो

या जमीन के नीचे पड़े बीज का अंकुरण

सृजन दबाव का विस्तार है

पर दबाव

को कोई

महसूस करना नहीं चाहता।“

कितनी सहजता से जीवन को एक सूत्र देता है कवि। यह कवि की ही क्षमता होती है कम लफ़्ज़ों में बड़ी बात कह देना, वह भी सहज संप्रेषणीय भाषा में।

मनुष्य जीवन भर सीखता रहता है लेकिन वास्तव में उसे सीखना क्या है, ये कभी समझ आता ही नहीं। जीवन कैसे जीना चाहिए? उसके आवश्यक तत्व क्या हैं? वास्तव में यदि मनुष्य यह सीख ले तो एक संतुलित और कामयाब जीवन जी सकता है और ‘इतना ही सीखता हूँ’ कविता उसी तथ्य को इंगित करती है। प्रश्न उठता है, आखिर मनुष्य को सीखना क्या चाहिए ? तो उसका उत्तर है ये कविता, जहाँ भौतिक वस्तुओं के पीछे न भागकर मानव केवल जीवन की इतनी भौतिकी जान ले कि जिस तरह जीने के लिए रोटी आवश्यक है उसी तरह प्रेम भी अनिवार्य तत्व है जीवन का, जिसके बिना यह सम्पूर्ण कायनात अधूरी है। प्रेम के अर्थ देह तक सीमित नहीं है अपितु सम्पूर्ण मानवता से प्रेम करना भी मनुष्य के लिए उतना ही आवश्यक है। एक फूल भी प्रेम का प्रतिदान प्रेम से देता है फिर हम तो मनुष्य हैं, क्या इतना नहीं समझ सकते। जितना रोटी और प्रेम आवश्यक है उतना ही घर का होना भी, घर केवल चहारदीवारी का नाम नहीं है। सम्पूर्ण पृथ्वी ही अपना घर है। केवल स्वयं तक सीमित रहना और मैं, मैं ही करना अर्थात मैं, मेरा घर , मेरे बच्चे बस इतना ही भूगोल नहीं होता। भूगोल पढ़ना है तो वसुधैव कुटुम्बकम का आह्वान करो और उस ओर वापसी करो, मानो यही है कवि का व्यापक दृष्टिकोण। यूं एक आम आदमी का भूगोल उसके घर बच्चे तक ही सीमित होता है लेकिन दृष्टि को व्यापक करना होगा तभी यही पृथ्वी एक खुशहाल ग्रह सिद्ध होगी।

जीवन में मनुष्य ने रोटी जुटा ली, घर बना लिया लेकिन संवाद नहीं है तब भी जीवन अधूरा ही है। संवाद के लिए आवश्यक है भाषा का होना। भाषा के लिए आवश्यक है अपनी भाषा से प्रेम, उसे बचाए रखने की कवायद, न कि अन्य भाषा के सम्मुख उसे हेय दृष्टि से देखना। यहाँ मात्र भाषा को नहीं बचाया जा रहा अपितु मनुष्य स्वयं को बचाएगा, क्योंकि किसी भी देश को उसकी भाषा ही बचाती है। वही उसके भेद खोलती है। अतः उसको बचाकर ही अपने गौरव को बचाया जा सकता है, कविता के माध्यम से मानो कवि का यही आह्वान है। भाषा बचेगी तभी आप पढ़ना-लिखना सीख पायेंगे। पढ़ने के लिए जरूरी है वो दृष्टि पैदा करना ताकि अपने समाज, अपने देश में जो विसंगतियाँ हों उन्हें रेखांकित किया जा सके, उन्हें पढ़ा जा सके। सत्य जाने कितनी परतों के नीचे दबा होगा और ज़िन्दगी के सत्य तो और भी कठिन हैं पढ़ना इसलिए आवश्यक है। मानव न केवल बाहरी दृष्टि से अपितु आंतरिक दृष्टि से भी जागृत हो तभी वह अपना जीवन सुचारू रूप से चला सकता है और देश व समाज भी। कुछ ऐसे भी भाव समेटे है कविता ‘इतना ही सीखता हूँ’ –

“इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी

कि रोटी की ज़रूरत के साथ

हृदय की प्रेम तरंगें

और कम्पन भी माप सकूँ

 

इतना ही सीखता हूँ भूगोल

कि ज़िन्दगी की

इस भूल भूलैया में

शाम ढलने तलक

घर की दिशा याद रख सकूँ

 

उकेरता हूँ ख़ुद को उतना ही

जितना सच बचा है

मेरे अन्तस में”

‘ओसारा अब स्मृति में भी अवशेष है’- पंक्ति है कविता “ओसारा से”। वक्त के साथ बदलते परिदृश्य, मानवीय संवेदनाएँ, सहजता और सरलता के युग्म आज केवल स्मृति की थाती रह गए हैं, जिन्हें हम कविता में ढाल, जिंदा रखने की कोशिश कर सकते हैं। कविता के माध्यम से कवि मानो यही कहना चाहते हैं,  कि परिवर्तन संसार का नियम है बस स्मृति ही वह माध्यम है जहाँ ये धरोहरें सुरक्षित रखी जा सकती हैं। वक्त सब लील लेता है।

हुक्मरान जवाब नहीं देते। उनके एजेंडे हैं। जनता हथियार और हथियारों का अपना कोई वजूद कैसे हो सकता है? वो सवाल कैसे कर सकते हैं? जनता जागरुक हो तो उसके अधिकारों पर कोई डाका नहीं डाल सकता, लेकिन जनता सोयी रहती है और जो इक्का-दुक्क्का जागती है उसकी आवाज़ नक्कारखाने में टूटी की आवाज़ सरीखी होती है। यह हम सभी जानते हैं। आज राजनीति की चौसर पर जनता ही दांव पर लगी है, एक ऐसे दौर में जी रहे हैं हम। कवि कहता है – ‘बस, अपना जवाब चाहिए’ – इतना साहस एक कवि ही कर सकता है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात है बेशक जनता सोयी रहे या उनका पासा बनी रहे तब भी कवि प्रश्न करता रहेगा और ये प्रश्न करना ही जीवित रहने की निशानी है। प्रश्न करने की इच्छा को कविता में कवि ने एक उम्मीद की किरण के रूप में जिंदा रखा है जो कविता को नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर लेकर जाती है। बस इसी उम्मीद की किरण से नयी दास्तानें हमेशा से लिखी गयी हैं और लिखी जाती रहेंगी, मानो यही कहना चाहता है कवि, अपने अन्दर स्वयम को थोडा तो जिंदा रखो यारों।

इतनी उथल पुथल के मध्य यदि प्रेम भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दे तो जीवन वहीं सार्थक हो जाता है। कविता में कवि ने प्रेम को बखूबी परिभाषित किया है, जिसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं, बस बानगी ही उसकी सम्पूर्णता का दर्शन करा देती है।–

“मोहब्बत को बेहद की ओर चलने की आदत है

पर जब वो अथाह की ओर मुड़ जाए

तो लत बनकर पसर जाती है

जिन्दगी से जब मोहब्बत होती है

तो दुनिया हाथ में गेंद की तरह उछलती रहती है

उसकी आँखें समन्दर-सी गहरी हैं

और सारा मसला इस समन्दर का ही है

जो ज़्यादा दिन तक चीज़ें पास नहीं रखता

वापस कर देता है प्रेम भी”

स्वतंत्रता के सबके लिए अलग मायने होते हैं। देह की स्वतंत्रता सबको कहाँ होती है। कहीं देह से मुक्ति भी स्वतंत्रता की द्योतक होती है, कहीं ज़िन्दगी से मुक्ति भी। ऐसे ही भावों को 15 अगस्त कविता में संजोया है कवि यतीश कुमार ने।

जीवन एक यात्रा है। सुख-दुःख के साथ जाने कितने आयाम ज़िन्दगी में आते हैं लेकिन अंत में मनुष्य जीवन दर्शन की ओर उन्मुख होता है। वह जानना चाहता है अपना होना। वह जानना चाहता है आखिर वह है कौन? इस ‘मैं’ को पकड़ना आसान कहाँ। ‘मैं’ गहन अर्थ समेटे है। क्या ‘मैं’ कोई खरीद पाया है या ‘मैं’ बिकाऊ है? प्रश्न उठाना लाजमी है। ‘मैं’ न संज्ञा है, न सर्वनाम, न विशेषण। ‘मैं’ है पूर्णाहुति। मनुष्य अपने ‘मैं’ से जिस दिन परिचित हो जाएगा उस दिन उसे किसी परिचय या किसी त्याग की आवश्यकता नहीं होगी। यह समस्त सृष्टि ‘मैं’ का ही विलास है, केवल इतनी सी आँख खुल जाए।

बाकी कविता के कोण को समझा जाए तो वास्तव में यह जीवन का सत्य है यदि कोई किसी को खोजे तो उसे वह वैसा नहीं मिलता जैसे उसने पाया था, जाना था, समझा था। वक्त के बेरहम हाथ हर मनुष्य को इतना काटते छांटते हैं कि उसका मूल स्वरूप ही नष्ट हो जाता है, वह वैसा मिलता ही नहीं जैसा निश्छल मासूम जन्म के समय होता है। ऐसे इंसान का बिकना क्या और खरीदना क्या, जो यदि स्वयं भी स्वयं को ढूंढें तो भी अनंतकाल तक स्वयं को फिर उस स्थान पर खड़ा नहीं पा सकता। यही समय का शाश्वत सत्य है और जीवन की विडंबना भी, जिसे कवि ने “खरीद-फरोख्त” कविता में प्रस्तुत किया है।

“ये दिल्ली है मेरी जान”, “शहर का नदी हो जाना” और “भोर पाँच बजे का यह शहर” ये तीनों कवितायें जैसे एक ही दर्द को बयान कर रही हैं।जाने कहाँ गए वे दौर जब शहरों में भी आत्मीयता लिबास पहने गली कूचों में विचरा करती थी, मानो कवि का उद्देश्य यही कहने का है। इन कविताओं के माध्यम से कवि ने कोलकाता अथवा राजधानी दिल्ली जैसे शहरों के दर्द को शब्दों में उड़ेल दिया है। कोलकाता को आधार बना। दिल्ली के दर्द को जैसे कवि ने महसूस किया और कविता के माध्यम से बयाँ कर दिया। आज वाकई उस दिल्ली को हम ढूँढ हैं, जाने कहाँ खो गयी। कितनी परतों के नीचे दब गयी। कोई जलजला जब आये शायद तब दिल्ली की वे परतें ऊपर आयें और पुनः एक बार वही हलचल वही अपनेपन की तरावट में दिल्ली डूब जाए जिसके लिए कहा था ‘दिल्ली तो दिलवालों की है’। इस भाव को कवि ने बखूबी इन कविताओं में उतारा है। कहने को कवि कोलकाता की बात कर रहा है लेकिन एक ही दर्पण में दो चेहरों का अवलोकन करा रहा है।

 

“मेरे शहर!

ओ मेरे कोलकाता शहर

तू भी दिल्ली बनने को तैयार

क्यों छोड़ रहा अपनी परिचित रफ़्तार

 

चाय की गुमटी पर

कुल्हड़ भर चाय के साथ बीड़ी सुलगाए

एक कवि सोचता है…

और पीता है सभ्यता से निकला विष!

इन पंक्तियों में कुल्हड़ भर चाय और बीडी पीने का जो भाव है वही दर्शा रहा है जैसे पुरानी दिल्ली के किसी गली-कूचे में खड़े एक आम आदमी की बात कर रहा है कवि, जहाँ सुबह हों या शामें, इसी अंदाज़ में गुजरा करती थीं। मानो कहना चाहता है कवि, कभी ये अंदाज़ हुआ करता था शहरों का फिर वो कोलकाता हो या दिल्ली।

“हवाएँ उड़ा ले जाना चाहती हैं

हमें दिल्ली से दूर

जबकि पाँव है कि

अधपकी चपाती से चिपका हुआ है

और नज़र है कि

कोयला और राख के बीच

सुलग रही है!

 

चेहरे और नज़र को

सीधा रखने की

पुरज़ोर कोशिश में

मुझे क़ुतुबमीनार

सचमुच टेढ़ी दिख रही है”

इन पंक्तियों में बसी बेबसी और समय के चक्रव्यूह में घिरे मानव मन की पीड़ा का दिग्दर्शन बहुत ही संजीदगी से उभरकर आता है। जब कवि देखता है शहर केवल चेहरों में तब्दील हो चुके हैं, संवेदनाएं वक्त की खाई में समा चुकी हैं, जीवित रहने की जद्दोजहद के सम्मुख अन्य कोई बात मायने नहीं रखती तब अंततः ‘शहर का नदी हो जाना’ कविता के माध्यम से उसे  आवाज़ उठानी ही पड़ती है। वाकई शहर अब नदी में तब्दील हो चुके हैं, चेहरों की बाढ़ में मनुष्य खो चुके हैं। जिंदा रहना है, जिस दौर में केवल यही मायने रखने लगे, मनुष्य मंदिर-मस्जिद के हथियारों में तब्दील हो रहे हों, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरे लगे हों, उस दौर में घर नहीं बचा करते और जब घर न बनते हैं न बचते हैं तब शहर भी धीरे धीरे मरने लगते हैं। अपने आँसुओं के माध्यम से बहा ले जाने लगते हैं तमाम खुश्गावारियाँ। विसंगतियों की उथली नदी में बदलते शहर जो सब अपने में नदी की भांति समाहित करते चलते हैं तब उसका स्वरूप कैसा होता है वह दिल्ली की यमुना देखकर जाना जा सकता है, जहाँ वह एक नाले में तब्दील होती जा रही है।

एक शहर का धीरे-धीरे मरना, खत्म होना या कहा जाये एक शहर के अंतर्मन में झांकना सबके बस में नहीं होता। उसके लिए स्वयं को शहर में तब्दील करना होता है तब ऐसी कविता जन्म लेती है। शुरू के चार पैरा पढ़ने पर प्रतीत होता है जैसे कवि साहित्य की दुनिया का यथार्थ लिख रहे हों, अंतिम पैरा में राजनीती का उथला चेहरा दर्शा रहे हों और अंत में एक शहर की खूबसूरती और दुर्दशा का चित्रण कर रहे हों जैसे एक श्रृंखला प्रस्तुत की हो, कविता पढ़ते हुए जाने कितने भावों का समावेश होता चलता है।वही कविता बड़ी कविता कहलाती है जो अपने में समस्त सृष्टि को समाहित करती चले।

 

“बचपन में

किसी ने जूते की नोक से

दर्द चुभो दिया था”

केवल इन्हीं पंक्तियों से पूरा परिदृश्य हमारे सम्मुख उपस्थित हो जाता है। जूते और जाति का एक दूसरे से सास बहू वाला रिश्ता है। दोनों एक दूजे को फूटी आँख नहीं सुहाते। इन्हीं जूतों के माध्यम से ‘जाति’ कविता प्रस्तुत करते हुए कवि ने एक चित्र आँखों के आगे खींच दिया है।  लेकिन कवि ने केवल वहीं रुकना नहीं सीखा, जहाँ दर्द का सागर लहलहा रहा हो और सहानुभूति की मरहम बटोर वाहवाही का तमगा पहनने का प्रयास किया हो। कवि ने उस सत्य की आँख में न केवल झाँका बल्कि हौसले के पर्वत से संभावना का द्वार तलाश अपने स्वाभिमान की रेखा को बचा लिया। कविता के माध्यम से कवि मानो यही कहना चाहते हैं कि चाहे कोई कितना ही प्रयास करे यदि आपमें लड़ने की शक्ति है, गिरकर उठने का हुनर आपको आता है तो फिर कोई ताकत नहीं जो आप को रोक सके, आप की राह में काँटे बो सके। बाकी वक्त की छोड़ी निशानियों से कोई अछूता नहीं रहता बल्कि वही हौसले का संचार करती हैं और आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। कविता के माध्यम से कवि इसी बात की पुरजोर वकालत कर रहे हैं, जिसका पता ये बानगी देती है-

 

“कुचलने की पुरजोर कोशिश के बीच

अपना दम और फेन

दोनों ही बचा लिए हैं मैंने

हिस्से में मेरे

रह गया एक अमिट चोट का धब्बा

और टक-टक की आवाज़”

कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जो कवि से अछूता रहा हो। कवि की दृष्टि से कोई नहीं बचा फिर कैसे संभव है प्रेम हो या सड़क, बच जाएँ। ‘मैं सड़क हूँ’ एक अलग अंदाज़ की कविता है जिसके माध्यम से एक बार फिर कवि व्यष्टि से समष्टि तक पहुँचता है। चिंताग्रस्त है न केवल आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपितु पृथ्वी हो या प्रकृति दोनों के प्रति उसकी चिंता इन पंक्तियों में लक्षित होती है-

“वो चल रहे हैं

संख्याओं के समीकरण तोड़ते हुए

और मैं चुपचाप उनकी धड़कनें सुन रहा हूँ

 

असंख्य पदचापों में

कुछ ध्वनियाँ तांडव-सी धमकती हैं

पर यहीं जन्मते शिशुओं की चाप

इन सबमें भारी है

 

सड़कें अवरोह से आरोह की तरफ मुखर हैं

पसीने का काढ़ा

तिल्ली में जमा पित्त है

गाढ़ा रक्त पसीने-सा तरल है

 

पृथ्वी को पट्टियों-सा बाँधे देखता हूँ

अजन्मे बच्चे ने चलकर

अभी-अभी नापी है पूरी धरती”

कवि मन हो और प्रेम न आये ये कैसे संभव है। दूसरे भाग में प्रेम के विभिन्न आयामों को कवि ने समेटा है। कहीं इंतज़ार है तो कहीं मिलन तो कहीं विरह। कुछ झलकियों से प्रेम को महसूसा जा सकता है। प्रेम की व्याख्या नहीं हो सकती, क्योंकि प्रेम आत्मा का संगीत है। कितनी सुन्दर उपमा है-

“समय की धार पर खड़ा

बेआवाज़ वक्त

गालों पर नमक का अक्स लिए

गुजरे लम्हों का अवशेष है”

या

 

“रूद्र और बुद्ध तो

हम सब में हैं

बस, लटों को बांधना किसे आता है”

 

या

“बनना चाहता हूँ

तुम्हारा चश्मा

बिना जिसके

दुनिया तुम्हें धुंधली दिखती है”

यह अंक प्रेम आधारित है। इस कविता में कवि ने कहीं ये उद्घाटित नहीं किया हैं कि वो पत्नी के, प्रेमिका के, बेटी के, माँ के अथवा ईश्वर या प्रकृति के किसके पास आयेगा। अनगिनत भावों को एक में समेटना आसान कहाँ। लेकिन एक भाव और इसमें समाहित होता है क्या कवि प्रेम के पास जाएगा क्योंकि प्रेम ही मनुष्य की प्रथम और अंतिम इच्छा होती है। वहीं उसकी तमाम भागदौड़ को पनाह मिलती है, वहीं उसकी मुक्ति होती है, वहीं उसकी विश्रामस्थली होती है। फिर प्रेम इंसानियत से हो, मानवता से हो अथवा प्रियतमा से – कविता अपने आप में अनेक अर्थों को समेटे है।

“जब टूट कर बिखरूँगा

तुम्हारे पास आऊँगा

जब सीमाओं के परे बहूँगा

तुम्हारे पास आऊँगा”

स्त्री कविता, स्त्री को परिभाषित करती बेहतरीन कविता है, जिसमें प्रत्येक स्त्री के प्रति कवि कृतज्ञता का भाव संजोये हैं। इस कविता की कोई क्या व्याख्या करे, ये केवल संजोये जाने योग्य है, महसूसे जाने योग्य है।

“जीवन में समस्त ऊर्जा स्त्रोत

जिन जिन स्त्रियों से मिलता रहा

उनकी जागती सोती आँखों से

मैंने प्रार्थनाओं से भरा स्वर्ग देखा है

ईश्वर मिथक नहीं सच है

और आपके इर्द गिर्द हाथ थामे

यकीन दिलाता है कि

ईश्वर कोई पुरुष नहीं होता”

‘सबसे प्यारी हँसी’, ‘आदतन’, ‘बनना चाहता हूँ’ आदि कविताओं में कवि ने प्रेम के सुन्दर भाव संजोये हैं। इसके साथ ही ‘हम-तुम’ सीरीज की कविताओं में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को बखूबी संजोया है। एक दूजे के बिना दोनों अधूरे हैं इस भाव को सभी अपनी तरह सदा से कहते रहे हैं तब कैसे संभव है कवि का भी उस भाव को अपने अंदाज़ में कहने से बचे रहना। सुख-दुःख की एक अनोखी परिभाषा गढ़ी है कवि ने जो शब्दों से परे है। माँ और पि