विदेशो जैसा भारत में कथाओं के नायक केवल राजकुमार-राजकुमारी नहीं होते। कोई भी हो सकता है। इसलिए हमारी इस कहानी का नायक एक साधू और उसके दो चेले हैं। ये साधू महाराज और चेले जब घूमते-घूमते एक नगर में पहुंचे तो एक पेड़ के नीचे धूनी रमाई। फिर चेलों को दान में मिले पैसों में से कुछ देकर कहा कि जाओ कुछ खरीद लाओ जिससे कुछ पकाया-खाया जा सके। चेले बाजार पहुंचे तो वहाँ सब टके सेर था! एक चेला तो खाली हाथ लौट आया मगर दूसरा लालच में पड़ा और खूब मिठाइयाँ खरीद लाया। साधू ने समझाया – “सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास। ऐसे देस कुदेस में कबहूँ न कीजै बास।।“ खाली हाथ लौटा चेला तो मान गया, मगर दूसरा वाला वहीँ रुक गया। साधू-चेला चले गए।

 

समय बीता और एक रोज कोई फरियादी राजा के पास पहुंचा। उसकी बकरी किसी बनिए की दीवार के नीचे दबकर मर गयी थी। दीवार को सजा दी नहीं जा सकती थी इसलिए तय हुआ कि बनिए को फांसी दी जाए। बनिए ने कहा कि दीवार तो कारीगर ने कमजोर बनाई, तो कारीगर को फांसी तय हुई। कारीगर बोला भिश्ती ने चूने में पानी ज्यादा मिलाया इसलिए दीवार कमजोर थी, भिश्ती को फांसी दी जाये। भिश्ती को लाया गया तो उसने कहा कसाई ने मश्क बड़ी बना दी थी, इसलिए पानी ज्यादा हुआ। कसाई बोला मेरी नहीं गड़ड़ीये की गलती है जिसने मोटी भेंड़ बेच दी। गड़ड़ीये ने कहा कोतवाल साहब की सवारी देखने में उसका ध्यान भटक गया। अंततोगत्वा कोतवाल को फांसी की सजा सुना दी गयी!

 

कोतवाल दुबले से थे और फंदा उनके गले में नहीं आ रहा था। इसलिए सिपाही निकले किसी मोटे आदमी को ढूँढने। किसी न किसी को तो फांसी होनी ही थी! साधू का जो चेला इतने दिन में टके सेर खा-खा कर मोटा हो चुका था, धर लाया गया। इससे पहले की फांसी होती उसके गुरु पहुँच गए। चेले की ऐसी हालत कैसे होने देते? लगे गुरु चेला झगड़ने कि फांसी मैं चढूँगा तो मैं चढूँगा! पूछा गया की मामला क्या है तो बताया गया इस घड़ी जो मरा वो सीधा स्वर्ग जायेगा इसलिए गुरु-शिष्य में झगड़ा हो रहा है। जब राजा को ये बात पता चली तो वो दोनों को उतार कर खुद ही फांसी चढ़ गया! भारतेन्दु हरीशचंद्र का ये टके सेर भाजी टके सेर खाजा नाटक, कम्युनिस्ट व्यवस्था पर व्यंग था या नहीं पता नहीं। मगर इससे हमें दूसरा ही कुछ याद आ गया।

 

बिहार में कार अगर इंडिका जैसी कोई छोटी कार हो तो पिछली सीट पर आमतौर पर तीन लोग होते हैं। अगर स्कार्पियो जैसी कोई बड़ी गाड़ी हो तो चार होंगे कम से कम। ज्यादातर एक शहर से दूसरे शहर में जा रही गाड़ियों में तो इससे ज्यादा ही मिलेंगे, हो सकता है एक दो छोटे बच्चे गोद में भी हों। पिछली सीट पर सीट बेल्ट दो होती है। ये तीन-चार लोग दो सीट बेल्ट बाटेंगे कैसे? जहाँ तक कानून को लागू करने का प्रश्न है, पटना शहर में चलने वाले शेयर्ड ऑटो में ड्राईवर के बगल वाली सीट पर सवारी बिठाना पुलिस कभी बंद नहीं करवा पाई है। कोलकाता में भी शेयर्ड ऑटो ऐसे ही चलता है। इसलिए एक बड़े आदमी की मौत पर जो ये सीट बेल्ट लगाओ की बयानबाजी है, उसके लिए ये भी याद रखिये की वो मर्सीडीज में था किसी दस लाख वाली गाड़ी में नहीं। 

 

जहाँ तक कानून बनने, उसे सुधारने, लागू करने इत्यादि की बात है, इससे एक मजेदार बात तो होगी ही। विप्रो, टीसीएस जैसी कई बड़ी कंपनियां अपने स्टाफ को कैब देती हैं। दिल्ली, बंगलुरु, कोलकाता, चेन्नई, करीब-करीब हर बड़े शहर में इनके ऑफिस भी हैं। इनकी कैब में जितने लोग होते हैं, उतने में पिछली सीट पर सीट बेल्ट लगाना तो संभव नहीं। स्कार्पियो जैसी कई गाड़ियों में जो सबसे पीछे की सीट होती है, उसपर सीट बेल्ट होगी, इसमें भी शक है। ऐसी बड़ी कंपनियों के मालिकों से मंतरी जी की यारी भी होगी। कानून बना दिया तो खुद ही उसे लागू करवा देने का आदेश कैसे देगी आपकी सरकार?

 

बाकि के लिए भारतेंदु हरीशचंद्र का अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा की कहावत तो है ही।