दुनिया के पहले गणतंत्र का स्मरण !
देशवासियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं। आज का दिन खुशियां बांटने के साथ अवसर है याद करने का दुनिया के उस पहले गणतंत्र वैशाली को जिसने दुनिया को करीब तीन हजार साल पहले लोकशाही की राह दिखाई थी। आज के अखबार 'अमृत विचार' में मेरा आलेख।

भारत अपने गणतंत्र की एक लंबी यात्रा पूरी कर चुका है। इस यात्रा में इसने दुनिया के कुछ सबसे कामयाब गणतंत्रों में अपनी जगह बनाई है। कुछ कमियों के बावजूद इसने हमें गर्व के बहुत सारे अवसर दिए है। किसी भी गणतंत्र दिवस के मौके पर हमें याद आती है दुनिया के उस पहले गणतंत्र की जिसने भारत ही नहीं, समूचे विश्व को लोकशाही की राह दिखाई थी ! छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जब सारी दुनिया में वंश पर आधारित राजतंत्र चरमोत्कर्ष पर था, वर्तमान बिहार का वैशाली एकमात्र राज्य था जहां का शासन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते थे। वैसे तो यह बात बुद्ध के काल की है, लेकिन वैशाली का इतिहास बुद्ध से भी पुराना है। एक वैभवशाली राजतंत्र के रूप में इसकी चर्चा अनेक पुराणो और महाभारत में भी है। इसका नामकरण महाभारत काल के ईक्ष्वाकु-वंशीय राजा विशाल के नाम पर हुआ था। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले चौतीस राजाओं के उल्लेख हैं। ईसा पूर्व सातवीं सदी में उत्तरी और मध्य भारत में विकसित सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान महत्त्वपूर्ण था। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैले भूखंड पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ अष्टकुल द्वारा यहां गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरूआत की गयी थी। यहां का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाने लगा। यह और बात है कि तब निर्वाचक और चुने हुए प्रतिनिधि आमजन के बीच से नहीं, समाज के सामंत वर्ग से ही आते थे, लेकिन आज दुनिया भर में जिस गणतंत्र को अपनाया जा रहा है, इसके बीज लिच्छवि शासकों के गणतंत्र वैशाली की शासन प्रणाली में खोजे जा सकते हैं।

वैशाली बिहार की राजधानी पटना से करीब पचास किमी दूर वैशाली जिले का वह ऐतिहासिक स्थल है जिसे भगवान महावीर की जन्मभूमि और भगवान बुद्ध की कर्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है। बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान महत्त्वपूर्ण था। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार प्राचीन वैशाली अति समृद्ध एवं सुरक्षित नगर था जिसे शत्रुओं से बचाव के लिए तीन तरफ से दीवारों से घेरा गया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार पूरे वैशाली नगर का घेरा चौदह मील के लगभग था। मौर्य और गुप्‍त राजवंश में जब पाटलीपुत्र राजधानी के रूप में विकसित हुआ, तब वैशाली इस क्षेत्र के व्‍यापार और उद्योग का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। भगवान बुद्ध ने संभवतः तीन बार वैशाली में लंबा प्रवास किया था। वैशाली के कोल्‍हुआ में उन्होंने शिष्यों और आमजन को अपना अन्तिम सम्बोधन दिया था। उनकी याद में सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां एक सिंह स्‍तम्भ का निर्माण करवाया था। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के सौ साल बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद् का आयोजन हुआ था। इस आयोजन की याद में वहां दो बौद्ध स्‍तूप बनवाये गये। प्रसिद्द राजनर्तकी और नगरवधू आम्रपाली वैशाली की थी जिसने जीवन की क्षणभंगुरता का बोध होने के बाद अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में तथागत से बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी। बौद्ध साहित्य, जातकों, प्राचीन ग्रन्थों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत में वैशाली की समृद्धि, सुरक्षा-व्यवस्था, वैभव और गणिका आम्रपाली के विशाल प्रासाद तथा उद्यान का विशद वर्णन मिलता है ! वैशाली की भूमि न केवल ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है वरन् कला और संस्‍कृति के दृष्टिकोण से भी काफी धनी है। वैशाली में राजा विशाल के गढ़ के खंडहर और बुद्ध काल के अवशेषों - बौद्ध स्तूप, अशोक स्तंभ, बावन पोखर मंदिर, अभिषेक पुष्करणी आदि के अलावा इसके पास ही चेचर उर्फ श्वेतपुर से प्राप्त और संग्रहित प्राचीन मूर्तियां, सिक्के तथा उत्तर प्रस्तर युग के मिट्टी के बने पुरातात्विक महत्व के बर्तन यहां की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की याद दिलाते हैं।

तथागत बुद्ध को वैशाली तथा उसके निवासियों से बहुत प्रेम था। उनके काल में इस क्षेत्र में कई बौद्ध मठों की स्थापना हुई थी। उन्होंने वैशाली के उद्योगी, पुरुषार्थी, चरित्रवान और अतिथिपरायण शासकों को देवों की उपमा दी थी। जीवन के कुछ आखिरी समय उन्होंने वैशाली में ही बिताए थे। अपनी अंतिम यात्रा के समय वैशाली से कुशीनारा आते समय वे उदास हुए थे। उन्होंने बेहद करुण शब्दों में आनंद से कहा था कि- 'आनन्द, अब तथागत इस सुंदर नगरी का दर्शन कभी नहीं कर सकेगे।' जैन धर्मावलंबियों के लिए भी वैशाली एक पवित्र स्थल है। तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वज्जिकुल में वैशाली के कुंडलपुर या कुंडग्राम में हुआ था जहां वे बाईस साल की उम्र तक रहे थे।

वैशाली का गौरव मध्यकाल तक अक्षुण्ण रहा था। मध्यकाल में बख्तियार खिलजी के वैशाली पर काबिज होने के बाद इस प्राचीन नगर ने अपना गौरव लगभग खो दिया। आजादी के बाद इसके विकास के कई काम हुए। आज वैशाली विश्व भर के पर्यटकों, विशेषकर बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए एक पूजा-स्थल और आम पर्यटकों के लिए लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। वैशाली में कई दूसरे बौद्ध देशों के कई मंदिर और एक भव्य विश्व शांति स्तूप भी बने हुए हैं। बुद्ध ने अपनी अंतिम यात्रा के पूर्व वैशाली के लिए कहा था - जबतक वैशाली के शासन में जनता की भागीदारी बनी रहेगी इसकी समृद्धि को किसी की नजर नहीं लगेगी !' दुनिया के पहले गणतंत्र वैशाली के प्रति राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इन शब्दों में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है :

वैशाली जन का प्रतिपालक, विश्व का आदि विधाता
जिसे ढूंढता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता
रुको एक क्षण पथिक, इस मिट्टी पर शीश नवाओ
राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ।

- Dhruv Gupta ( Retd IPS)
दुनिया के पहले गणतंत्र का स्मरण ! देशवासियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं। आज का दिन खुशियां बांटने के साथ अवसर है याद करने का दुनिया के उस पहले गणतंत्र वैशाली को जिसने दुनिया को करीब तीन हजार साल पहले लोकशाही की राह दिखाई थी। आज के अखबार 'अमृत विचार' में मेरा आलेख। भारत अपने गणतंत्र की एक लंबी यात्रा पूरी कर चुका है। इस यात्रा में इसने दुनिया के कुछ सबसे कामयाब गणतंत्रों में अपनी जगह बनाई है। कुछ कमियों के बावजूद इसने हमें गर्व के बहुत सारे अवसर दिए है। किसी भी गणतंत्र दिवस के मौके पर हमें याद आती है दुनिया के उस पहले गणतंत्र की जिसने भारत ही नहीं, समूचे विश्व को लोकशाही की राह दिखाई थी ! छठी शताब्दी ईसा पूर्व में जब सारी दुनिया में वंश पर आधारित राजतंत्र चरमोत्कर्ष पर था, वर्तमान बिहार का वैशाली एकमात्र राज्य था जहां का शासन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते थे। वैसे तो यह बात बुद्ध के काल की है, लेकिन वैशाली का इतिहास बुद्ध से भी पुराना है। एक वैभवशाली राजतंत्र के रूप में इसकी चर्चा अनेक पुराणो और महाभारत में भी है। इसका नामकरण महाभारत काल के ईक्ष्वाकु-वंशीय राजा विशाल के नाम पर हुआ था। विष्णु पुराण में इस क्षेत्र पर राज करने वाले चौतीस राजाओं के उल्लेख हैं। ईसा पूर्व सातवीं सदी में उत्तरी और मध्य भारत में विकसित सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान महत्त्वपूर्ण था। लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में नेपाल की तराई से लेकर गंगा के बीच फैले भूखंड पर वज्जियों तथा लिच्‍छवियों के संघ अष्टकुल द्वारा यहां गणतांत्रिक शासन व्यवस्था की शुरूआत की गयी थी। यहां का शासक जनता के प्रतिनिधियों द्वारा चुना जाने लगा। यह और बात है कि तब निर्वाचक और चुने हुए प्रतिनिधि आमजन के बीच से नहीं, समाज के सामंत वर्ग से ही आते थे, लेकिन आज दुनिया भर में जिस गणतंत्र को अपनाया जा रहा है, इसके बीज लिच्छवि शासकों के गणतंत्र वैशाली की शासन प्रणाली में खोजे जा सकते हैं। वैशाली बिहार की राजधानी पटना से करीब पचास किमी दूर वैशाली जिले का वह ऐतिहासिक स्थल है जिसे भगवान महावीर की जन्मभूमि और भगवान बुद्ध की कर्मभूमि होने का सौभाग्य प्राप्त है। बुद्ध के समय सोलह महाजनपदों में वैशाली का स्थान मगध के समान महत्त्वपूर्ण था। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार प्राचीन वैशाली अति समृद्ध एवं सुरक्षित नगर था जिसे शत्रुओं से बचाव के लिए तीन तरफ से दीवारों से घेरा गया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार पूरे वैशाली नगर का घेरा चौदह मील के लगभग था। मौर्य और गुप्‍त राजवंश में जब पाटलीपुत्र राजधानी के रूप में विकसित हुआ, तब वैशाली इस क्षेत्र के व्‍यापार और उद्योग का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। भगवान बुद्ध ने संभवतः तीन बार वैशाली में लंबा प्रवास किया था। वैशाली के कोल्‍हुआ में उन्होंने शिष्यों और आमजन को अपना अन्तिम सम्बोधन दिया था। उनकी याद में सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में यहां एक सिंह स्‍तम्भ का निर्माण करवाया था। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के सौ साल बाद वैशाली में दूसरे बौद्ध परिषद् का आयोजन हुआ था। इस आयोजन की याद में वहां दो बौद्ध स्‍तूप बनवाये गये। प्रसिद्द राजनर्तकी और नगरवधू आम्रपाली वैशाली की थी जिसने जीवन की क्षणभंगुरता का बोध होने के बाद अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में तथागत से बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की थी। बौद्ध साहित्य, जातकों, प्राचीन ग्रन्थों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृत्तांत में वैशाली की समृद्धि, सुरक्षा-व्यवस्था, वैभव और गणिका आम्रपाली के विशाल प्रासाद तथा उद्यान का विशद वर्णन मिलता है ! वैशाली की भूमि न केवल ऐतिहासिक रूप से समृद्ध है वरन् कला और संस्‍कृति के दृष्टिकोण से भी काफी धनी है। वैशाली में राजा विशाल के गढ़ के खंडहर और बुद्ध काल के अवशेषों - बौद्ध स्तूप, अशोक स्तंभ, बावन पोखर मंदिर, अभिषेक पुष्करणी आदि के अलावा इसके पास ही चेचर उर्फ श्वेतपुर से प्राप्त और संग्रहित प्राचीन मूर्तियां, सिक्के तथा उत्तर प्रस्तर युग के मिट्टी के बने पुरातात्विक महत्व के बर्तन यहां की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की याद दिलाते हैं। तथागत बुद्ध को वैशाली तथा उसके निवासियों से बहुत प्रेम था। उनके काल में इस क्षेत्र में कई बौद्ध मठों की स्थापना हुई थी। उन्होंने वैशाली के उद्योगी, पुरुषार्थी, चरित्रवान और अतिथिपरायण शासकों को देवों की उपमा दी थी। जीवन के कुछ आखिरी समय उन्होंने वैशाली में ही बिताए थे। अपनी अंतिम यात्रा के समय वैशाली से कुशीनारा आते समय वे उदास हुए थे। उन्होंने बेहद करुण शब्दों में आनंद से कहा था कि- 'आनन्द, अब तथागत इस सुंदर नगरी का दर्शन कभी नहीं कर सकेगे।' जैन धर्मावलंबियों के लिए भी वैशाली एक पवित्र स्थल है। तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म वज्जिकुल में वैशाली के कुंडलपुर या कुंडग्राम में हुआ था जहां वे बाईस साल की उम्र तक रहे थे। वैशाली का गौरव मध्यकाल तक अक्षुण्ण रहा था। मध्यकाल में बख्तियार खिलजी के वैशाली पर काबिज होने के बाद इस प्राचीन नगर ने अपना गौरव लगभग खो दिया। आजादी के बाद इसके विकास के कई काम हुए। आज वैशाली विश्व भर के पर्यटकों, विशेषकर बौद्ध और जैन धर्मावलंबियों के लिए एक पूजा-स्थल और आम पर्यटकों के लिए लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। वैशाली में कई दूसरे बौद्ध देशों के कई मंदिर और एक भव्य विश्व शांति स्तूप भी बने हुए हैं। बुद्ध ने अपनी अंतिम यात्रा के पूर्व वैशाली के लिए कहा था - जबतक वैशाली के शासन में जनता की भागीदारी बनी रहेगी इसकी समृद्धि को किसी की नजर नहीं लगेगी !' दुनिया के पहले गणतंत्र वैशाली के प्रति राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इन शब्दों में अपनी श्रद्धा व्यक्त की है : वैशाली जन का प्रतिपालक, विश्व का आदि विधाता जिसे ढूंढता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता रुको एक क्षण पथिक, इस मिट्टी पर शीश नवाओ राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ। - Dhruv Gupta ( Retd IPS)
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