अपने सामने ही एक एक कर अपने सात पुत्रों की हत्या देख कर टूट चुका वह पिता अपनी गोद में आठवें नवजात पुत्र को लेकर बैठा था। अल्पायु में ही वृद्ध हो चुके वसुदेव ने दृष्टि ऊपर उठाई और गरजे! मेरी तपस्या की और परीक्षा न लो ईश्वर! यदि सचमुच तुम्हारा अस्तित्व है, तो इस बच्चे को सुरक्षित गोकुल पहुँचाने की राह तुम्हे ही बनानी होगी। हे जगत पिता! इस पिता की और परीक्षा न लो... इस बच्चे की रक्षा करना मेरा नहीं, तुम्हारा धर्म है।
पिता ने एक करुण दृष्टि डाली गोद में, उनका आठवां पुत्र मुस्कुरा उठा। वसुदेव ने उस बंदीगृह में युगों बाद कोई निश्छल मुस्कुराहट देखी थी, जाने कैसे उस चिर दुखी व्यक्ति के अधर भी खिल गए। तभी पीछे से देवकी ने पीठ पर ठोकते हुए कहा- वह देखिये! यह सचमुच ईश्वर ही है।
वसुदेव ने दृष्टि उठाई तो आश्चर्य में डूब गए। बंदीगृह के सारे द्वार खुल गए थे और सारे सैनिक सोये पड़े थे। उन दो दुखी मनुष्यों का रोम रोम नाच उठा... यह समूचे संसार के लिए उत्सव का क्षण था। वह आ गया था...
पिता ने बालक को निहार कर दुलार से कहा- "क्यों रे? तू भगवान है न? सुन! यदि तू देव नहीं भी है, तब भी तुझे देवता बनना होगा। सारी मथुरा अपनी मुक्ति के लिए युगों से तुम्हारी ओर ही टकटकी लगाए खड़ी है। याद रखना, तुझे हम सब को मुक्ति देनी ही होगी... समूचे संसार का मुक्तिदाता है तू! तारणहार है तू!"
बालक मुस्कुराता रहा। पिता ने दृष्टि घुमायी, कोने में एक टोकरी पड़ी थी। आँखों-आँखों में ही पत्नी से अनुमति ली, बालक को झट से उस टोकरी में लिटाया, और निकल पड़े।
यमुना तट! भादो की काली अंधेरी रात और चढ़ी हुई यमुना, उसमें तो हिमालय डूब जाय, आदमी की क्या बिसात! पिता ने हाथ जोड़ कर कहा- "मेरे माथे पर जो सो रहा है, वह केवल मेरा पुत्र नहीं इस युग की अंतिम आशा है मइया! तू इस सभ्यता की माँ है, सबकुछ जानती है।मैं तेरा पुत्र, तेरी गोद में उतर रहा हूँ। चाहे तो पार लगा और चाहे तो बहा दे..."
वसुदेव उतरे, यमुना चढ़ने लगी। उन्हें भी देखना था कि कैसा दिखता है मुक्तिदाता! क्या स्वरूप लिया है जगतनियन्ता ने? वसुदेव आँख मूंदे बढ़ते रहे। यमुना चढ़ी, मालिक का दर्शन किया, पाँव छुए और उतर गयी।
वसुदेव पहुँचे मित्र के दर पर! बात बताई और सहयोग मांगा! नन्द मित्र थे, न सोचा न ही कोई प्रश्न किया। चुपचाप अंदर गए, यशोदा के बगल में सोयी बेटी को उठा लाये और मित्र की टोकरी में रख दिया। वे जानते थे कि उनकी एकमात्र संतान मार डाली जाएगी, फिर भी...
दोनों की आंखों में आँसू थे। वसुदेव के मुँह से बोल नहीं फूटे, उन्होंने भावातिरेक में मित्र को गले लगा लिया। नन्द बोले- "सभ्यता को मुक्तिदाता यूँ ही नहीं मिलता मित्र! सबको अपने हिस्से का बलिदान देना ही पड़ता है। इस महायज्ञ में मुझ निर्धन ग्वाले की ओर से उसकी संतान की ही आहुति रही। जाओ! तुम्हारे पुत्र को अपने हृदय में रखेंगे हम..."
वसुदेव लौट आये। राह में देखा, गोकुल के सारे वृक्षों पर बिना ऋतु के ही फूल खिल गये थे। वे वासुदेव की तपस्या और नन्द के बलिदान के फूल थे...
उस अंधेरी रात में, जब संसार सो रहा था, वह आ गया था। पालनहार... मुक्तिदाता... जगतपिता... कन्हैया!
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।