ये किन कल्पनाओं में हो कि इधर-उधर जाकर कहीं भाग गए, छुप गए तो मुक्ति मिल जाएगी ? जिन्हें अपनी दासता बरक़रार रखनी हो, वो भले ही संघर्ष ना करें, पर जो मुक्ति के प्रार्थी हों, उनका संघर्ष के बिना कैसे काम चलेगा? उन्हें तो घोर संघर्ष करना पड़ेगा, भीतर भी और बाहर भी। अर्जुन एक-एक तीर जो चला रहा है, वो कौरवों मात्र पर नहीं चला रहा है; अर्जुन का एक-एक तीर पुराने अर्जुन पर भी चल रहा है। हर तीर के साथ पुराना अर्जुन मिटता जा रहा है और एक नए अर्जुन का जन्म हो रहा है।

 पुराना अर्जुन कौन? पुराना अर्जुन वो जो पाण्डु पुत्र था; पुराना अर्जुन वो जो भीष्म के वंश का था; पुराना अर्जुन वो जो द्रोण का शिष्य था। नया अर्जुन कौन? जो सिर्फ कृष्ण का है। ये मुक्ति है— अर्जुन स्वयं से मुक्त हो रहा है एक-एक तीर के साथ। इसको कहते हैं मुक्ति। दूसरों को नहीं मार रहा अर्जुन; दूसरों से पहले स्वयं को मार रहा है। आज पहला अध्याय पढ़ा आपने। पहले अध्याय का जो अर्जुन है, वो अट्ठारहवें अध्याय में कहीं मिलेगा? तो कहाँ गया पहले अध्याय का अर्जुन? कहाँ गया?

अट्ठारवें अध्याय तक आते-आते पहले अध्याय का अर्जुन कहाँ गया? मर गया। किसने मारा उसे? अर्जुन ने ही मारा। ये मुक्ति है। देह होकर देखोगे, स्थूल दृष्टि से देखोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि अर्जुन तो तीर चला रहा है दूसरों पर। वास्तव में अर्जुन तीर चला रहा है स्वयं पर। इस युद्ध को लड़ना अर्जुन की साधना भी है – वो अपने ही पूर्वग्रहों से, मोह से, बँधनों से मुक्त हुआ जा रहा है - ऐसे मिलती है मुक्ति। जीव पैदा हुए हो, बेटा। लगातार कर्म तो करना ही है। एक कर्म है तीर चलाना, एक कर्म है भाग जाना।

 तुम कह रहे हो कि तीर चलाने से मुक्ति मिल गई भाग जाने से, अब भाग जाने से मुक्ति कैसे मिलेगी ? कर्म तो तुमने दोनों ही दशाओं में किया ही न। तीर चलाना एक कर्म था और मैदान से भाग जाना भी एक कर्म होता। तीर चलाने से मुक्ति मिली भाग जाने से, और अब ये जो भाग जाने का कर्म है, इससे मुक्ति कैसे मिलेगी, बोलो?