इन्टरनेट की आंधी, ऑप्टिक फाइबर्स और ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी का बिछता जाल, 3जी से होकर 4जी का द्वार खोलते सूचना प्रौद्योगिकी के नए बवंडर ने मानव जीवन के सभी आयामों को प्रभावित किया है। क्या यह बदलाव महज कुछ गैजेट्स या मनोरंजन तक, आपसी संवाद और सम्प्रेषण के साधन का क्रमिक विकासमात्र है या इसका कोई दूसरा पक्ष भी है?मनुष्यता के इतिहास में कम ही ऐसे दौर रहे हैं, जहां मानवता के पक्ष में कोई बड़ा बदलाव आया हो तथा समाज में सुख, शान्ति और न्याय स्थापित हुआ हो। इतिहासकार ऐसे कालखंड को गोल्डन एरा (स्वर्णयुग) पुकारते हैं।

क्रांतियों के सन्दर्भ में भी हमारा अनुभव कुछ अच्छा नहीं माना जा सकता। चाहे वह पश्चिम की रेनिसां हों अथवा औद्यौगिक क्रांति, पिछली सदी की हरित क्रांति हो अथवा श्वेत क्रांति। आप इसके वरदान और अभिशाप होने की लम्बी बहस में जा सकते हैं, परन्तु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि थोड़ा संयम और धैर्य से काम लिया जा सकता था। इन क्रांतियों में कूदने से पहले इन्हें पारंपरिक ज्ञान की कसौटी पर एक बार तौलने में बुराई नहीं थी। शायद तब हमें पंजाब की बांझ होती भूमि, भू-जल के दूषित होने का दंश, और देशी नस्ल की शुद्धता के साथ समझौता नहीं करना पड़ता। वर्तमान समय में ई-क्रांति भी इस दृष्टि से अछूती न रहने पाए, हमारा यह सजग प्रयास रहना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की दुर्दशा और दुर्दिन के पीछे हमारा अनुवांशिक रूप से सहज और सरल होना ही रहा है। हमने यह नहीं सोचा था कि व्यापारी बन कर आ रहे अंग्रेजों से हमें अपने आज़ादी का प्रशस्ति पत्र मांगना होगा।

                अब चूंकि सरकार और कार्पोरेट घरानों के साझा उद्यम में विश्वसनीयता और स्वीकार्यता बढ़ी है, भारत सरकार विश्व की कई बड़ी कम्पनियों के साथ कई महत्वपूर्ण करार कर रही है। इनमें से प्रमुख रूप से वह कम्पनियां हैं जो डिजिटल इंडिया मिशन में प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं। एक लाख करोड़ रुपये की लागत से डिजिटल इंडिया मिशन जैसे बड़ी संकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर गतिविधियां तेज हो चली हैं।

यह कम्पनियां सरकार के साथ अनुबंधित तो होती ही हैं, यह प्रत्येक नागरिक से भी एक करार करती हैं। जिसे हम टम्र्स ऑफ़ सर्विस पर दस्तखत कर के उपयोग में ला रहे होते हैं। इसके बदले में हमारी निजता के प्रति कुछ जवाबदेही इन कम्पनियों की होती है जिसे यह प्राइवेसी पॉलिसी के अंतर्गत उद्धृत करती हैं। ऐसे में जब भारत की अधिकांश जनता न तो टम्र्स ऑफ़ सर्विस के प्रति सचेत है, न उसे पढऩे-समझने में सक्षम है और न तो उसे अपने निजी जानकारी के सार्वजनिक होने से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के प्रति कोई चेतना है,क्या हमें इस बदलाव पर आंख मूंद कर विश्वास करना चाहिए?

हाल में ही राष्ट्रीय एन्क्रिप्शन नीति पर उठे विवाद ने इस प्रश्न को और भी प्रासंगिक कर दिया है। पिछले महीने राष्ट्रीय एन्क्रिप्शन नीति के प्राथमिक ड्राफ्ट ने, नागरिक अधिकारों में ‘निजी जानकारी और व्यक्तिगत डाटा’ के सार्वजनिक व निजी उपक्रमों, या राज्य द्वारा उपयोग व नीति निर्माण को लेकर गहन चिंतन की आवश्यकता को अनिवार्य कर दिया है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय एन्क्रिप्शन नीति ने व्हाट्सएप्प पर नागरिकों को नब्बे दिनों तक अपने सन्देश डिलीट नहीं करने की अपेक्षा की थी। बाद में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री श्री रवि शंकर ने इस पर स्पष्टीकरण देते हुए कहा था ”मैं साफ कर देना चाहता हूं कि जो सरकार की ओर से कल रिलीज किया गया, वो केवल ड्राफ्ट था। सरकार का नजरिया नहीं है। हमारी सरकार सोशल मीडिया की आजादी का समर्थन करती है। हमें सरकार की ओर से उठाए गए कदमों पर गर्व है।’’

इस ड्राफ्ट पर सोशल मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया हुई। कुछ महीनों पहले भी नेट न्यूट्रैलिटी(इंटरनेट तटस्थता) को लेकर आम लोगों के बीच कठोर प्रतिक्रिया देखने को मिली। नेट न्यूट्रैलिटी सिद्धांत यह अपेक्षा करता है कि इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डाटा को एक जैसा दर्जा देंगी। इससे यह स्पष्ट होता है कि आम आदमी के लिए इन्टरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से मिली अभिव्यक्ति की आज़ादी को वरदान के रूप में देखता है और वह इससे समझौता नहीं करना चाहेगा। लेकिन, क्या हो अगर यह वरदान अभिशाप बन जाये? इन्टरनेट और तकनीक पर हमारी निर्भरता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि टकराव की किसी भी स्थिति में हम इसकी अनिवार्यता से समझौता नहीं कर सकते हैं। क्या हो अगर आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस आपके संदेशों को स्वयं पहचान कर,उसे संवेदनशील मान अथवा राज्य के नियमों का उल्लंघन मान उसे प्रसारित हीन करे। आप कोई विचार लिखे और फेसबुक उसे पोस्ट करने से इनकार कर दे। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि गूगल की मानें तो 2030 तक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सहज होगा। यानी मशीन को पता होगा कि आपके साथ उसे कैसे व्यवहार करना है। मशीन आपके नियंत्रण में न होकर, स्वविवेक से संचालित हो रही होगी।

क्या इस स्थिति को स्वीकारने की कानूनी बाध्यता की स्थिति में भारतीय समाज है। वह भी तब, जब यह नियंत्रण रखने वाले लोग अमेरिकी और पश्चिमी संस्कृति के प्रबल हस्ताक्षर हो?

आइये अब इस नव-क्रांति के अग्रदूत बने ब्रांड और उनके सामाजिक चरित्र को करीब से देखें। ताकि हम यह आश्वस्त हो सकें कि तकनीक से हमबिस्तर हो, स्मार्ट फोन के साथ दुनिया जिस नए कल का स्वप्न देख रही है, वह वास्तव में हमारे लिए कैसी दुनिया ला सकता है?

 रे कुर्जवील, इंजीनियरिंग निदेशक, गूगल, प्रख्यात भविष्यवादी और आविष्कारक ने 3 जून 2015 को न्यूयार्क के एक्सपोनेंशियल फाइनेंस कांफ्रेंस केदौरान कहा था कि मानव मस्तिष्क का कृत्रिम बुद्धि और कंप्यूटर नेटवर्क के साथ जल्द ही विलय होगा। हाइब्रिड मानव2030 तक संभव हो सकेगा।

‘हम क्लाउड को नियोकॉर्टेक्स से 2030 तक सीधे कनेक्ट करने जा रहे हैं।’ यानि मानव मस्तिष्क की कोशिकाओं को क्लाउड कम्प्यूटिंग से जोड़ दिया जाना संभव होगा। ई-मेल आप सीधे अपने मस्तिष्क में प्राप्त कर सकेंगे। और आपके मस्तिष्क में उठने वाले विचार स्वत: पढ़े जा सकेंगे। 2012 में लिखी एक पुस्तक में उन्होंने, माइंड यानी मन को कृत्रिम रूप से बनाने के लिए अपने विचार रखे थे। उनका कहना था कि मानव मस्तिष्क में नियोकॉर्टेक्स के 300 करोड़ पैटर्न प्रोसेसर ही मानव सोच के लिए जिम्मेदार हैं। इनपैटर्न प्रोसेसर का कृत्रिम रूप रिप्लिकेट किया जा सकता है, जिससे कृत्रिम बुद्धि, मानव मस्तिस्क के क्षमता से परे कार्य कर सकेगी।

कहने का अर्थ हुआ कि मनुष्य होने की बुनियादी अवधारणा कि सभी मनुष्य बराबर हैं और ईश्वर ने उनमें कोई भेदभाव नहीं किया है, यह मान्यता समाप्त हो जाएगी। आपके मस्तिस्क तक किसी और की पहुंच आपके सोंच, विचार, कर्म, चिंतन उद्देश्य सभी को प्रभावित करने की स्थिति पैदा करने वाली है। क्या आप अपने मस्तिष्क के अन्दर किसी अन्य का हस्तक्षेप स्वीकार करते हैं?

अगर आप कोई शंका में हैं, तो आपको ज्ञात हो कि गूगल द्वारा एआई (आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस) के विकास के पीछे औद्योगिक प्रयोग एक आधार है ही, आपके और हमारे द्वारा गूगल से साझा की गयी सभी जानकारी ही इसका रॉ मटेरियल है। गूगल यह नहीं सहेज रहा कि आप क्या खोज रहे हैं, गूगल यह सहेज रहा है कि आप कैसे खोज रहे हैं, आपका मस्तिष्क विचारों को किस प्रकार जन्म दे रहा है।

गूगल के बिजनेस मॉडल में एक चीज़ स्पष्ट दिखती है कि उसके लिए श्रम और संसाधन जुटाने का काम पूरी दुनिया से वह मुफ्त करा रहा है। गूगल आपकी साईट को इंडेक्स कर सर्च इंजन में दर्शाने से पूर्व कोई आदेश नहीं लेता। गूगल इंडेक्सिंग डिफ़ॉल्ट रूप से ऑन होती है। हां आप गूगल के रोबोट (इन्टरनेट पर सामग्री संकलित करने के लिए जिम्मेदार प्रोग्राम) को एक विशेष निर्देश दे कर अपनी सामग्री को उठाने से रोक सकते हैं। पर आप सामान्य तौर पर ऐसा करना नहीं चाहेंगे।

पूरी दुनिया की साइट्स को संकलित कर गूगल सर्च, आपसे प्रचार प्रदर्शित करने तथा अन्य की अपेक्षा आपकी सुविधाओं और सेवाओं को प्राथमिकता से दिखाने के लिए ‘गूगल एडवर्ड’ नाम की सेवा से व्यापर करता है। यह सर्च इंजन अगर बराबरी और न्याय को प्राथमिकता देता, तो सेवा की गुणवता और वेबसाईट पर उपलब्ध जानकारी को प्राथमिकता दे रहा होता, न की पैसे लेकर किसी को विशेष लाभ। ठीक इसी प्रकार यू-ट्यूब, ब्लॉगर और अन्य सेवाओं से पब्लिक डाटा बैंक मुफ्त तैयार कर, उसे ही गणित में उलझा अर्थोपार्जन का मॉडल तैयार किया गया है। जिसे गूगल एपीआई के माध्यम से आपको सीमित इस्तेमाल की छूट देता है।

इसी बिग डाटा के संकलन और शोध से गूगल आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की क्षमता हासिल कर चुका है।

गत वर्ष गूगल ग्लास नाम के अत्याधुनिक चश्मे ने गैजेट की दुनिया में खलबली मचा दी। मानव मस्तिस्क के तीन महत्वपूर्ण संदेशों को पढ़ पाने में सक्षम यह तकनीकी उपकरण दुनिया को डिजिटल रूप में परोस रहा था। यूरोप के बाज़ार में शुरूआती लांच के बाद इस पर विरोध शुरू हुए। गूगल ने तब इसे बाज़ार से उठा लिया था। गूगल का दावा है कि 2035 तक मानव मस्तिष्क से उठने वाली 18प्रकार के तरंगों को पढ़ा जाना संभव हो सकेगा। मनुष्य का मस्तिष्क ही उसके प्रत्यक्ष संसार का साक्षी होता है। स्वप्न और प्रत्यक्ष में भेद नहीं कर पाना मस्तिष्क को निद्रा के अधीन होने का उदहारण है। यानी मस्तिष्क पर नियंत्रण कर प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद को मिटाया जा सकता है। जिसे हम माया के रूप में जानते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि गूगल या इन तकनीकी जायंट कम्पनियों की नीयत क्या है? गौरतलब है कि बीते वर्ष जुलाई में जुलियन असान्जे ने एक बड़ा खुलासा करते हुए कहा था कि गूगल, हिलेरी क्लिंटन और विदेश विभाग के बीच खास रिश्ता है। कंपनी के संस्थापक लैरी पेज और सेर्गेई ब्रिन द्वारा एरिकश्मिट को 2001 में सीईओ की जिम्मेदारी देने से लंबे समय पहले ही उनका प्रारंभिक शोध जो गूगल आधारित है, प्रारंभ हो चुका था। वह अनुसंधान आंशिक रूप से डिफेन्स एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (ष्ठ्रक्रक्क्र ) द्वारा वित्त पोषित किया गया था। जुलियन असान्जे ने 2011 में एरिकश्मिट से अपने मुलाक़ात और साक्षात्कार के बाद, कुछ वर्ष पहले गूगल के संबंध में कई खुलासे किये थे। ऐसे कई साक्ष्य मौजूद हैं जो गूगल का अमेरिकी डिफेन्स प्रोग्राम का ही एक हिस्सा होने की ओर स्पष्ट इशारा करते हैं।

गूगल, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक जैसी अन्य कम्पनियां निजी उद्यम हों तो भी इससे कुछ बदल नहीं जाता। ईस्ट इंडिया कम्पनी भी व्यपारियों का निजी उपक्रम ही थी। गूगल जहां सैटेलाईट के माध्यम से पृथ्वी के कोने कोने से डाटा सहेज रहा वहीं वार्ताओं और ज्ञान तंत्र के विस्तृत जाल को भू-चिन्हित (जिओ-टैग) कर वार्ता, विचार और घटनाओं के बीच की कडिय़ों को सुलझाया जा रहा है। सोशल मीडिया और इन्टरनेट पर वार्ताओं को भू-चिन्हित कर अगर विचार और घटनाओं के बीच संबंध स्थापित किया जा सकता है, तो इसकी उलट प्रक्रिया भी संभव है। यानी विचारों के प्रवाह को प्रभावित कर ऐच्छिक घटनाओं को भी अंजाम दिया जा सकता है।

शायद यही कारण है कि सोशल मीडिया और तकनीक आज इतनी प्रभावी हो गयी है कि इसने स्वयं को सत्ता और शासन में सबसे प्रभावी टूल के रूप में निर्विवाद स्थापित कर लिया है। इस दशक की कई क्रांतियां और सरकार सोशल मीडिया की ताकत से ही उपजी हैं।  ऐसे में, सोशल मीडिया के नियंत्रक और इसके संरक्षकों के बीच क्या रिश्ता है और वह रिश्ता आम लोगों के लिए कितना हितैशी है, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

गूगल का अनौपचारिक सिद्धांत यानी मोटो है कि ‘डोंट बी इविल’ – शैतान न बनें। आप इसके पीछे का  मनोविज्ञान देखें तो यह वाक्य एक आदर्श हो सकता है, आदेश हो सकता है, अथवा कानून व बाध्यता हो सकती है। यह अनुरोध तो कतई नहीं लगता। यह आदर्श हो, तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि गूगल जो आज एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट बाद दुनिया का तीसरा सबसे विश्वसनीय ब्रांड है, उसके जनोपयोगी और मानव कल्याणकारी कार्यों में रूचि रहती है या नहीं?

प्रथम दृष्टया यह जान पड़ता है कि गूगल, फेसबुक, एप्पल और अन्य सभी आईटी जायंट मुफ्त इन्टरनेट के पक्षधर हैं। मुफ्त इन्टरनेट को नागरिक अधिकार बताया जा रहा है। साथ ही अपने सोशल नेटवर्क सुविधा के गैर व्यावसायिक उपयोग को जनसाधारण के लिए मुफ्त दिया जा रहा है। गूगल भी अपनी ई-मेल, यूट्यूब, ड्राइव, सर्च आदि सर्वाधिक प्रचलित सेवाएं कुछ सीमा तक मुफ्त ही देने का दावा कर रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि यह सभी मुफ्त सेवादाता कम्पनियां दिन प्रति दिन नए कीर्तिमान स्थापित कर, बिलियन डॉलर्स का मुनाफा कमा रही है। क्या आपको नहीं लगता कि आज जब जीवन की बुनियादी आवश्यकता जैसे पानी और भोजन, दवा आदि का अभाव मृत्यु का कारण बन रहा है, वहां इतना सब कुछ मुफ्त कैसे दिया जा सकता है? गूगल 500 से भी ज्यादा सेवाओं के साथ बाज़ार के सबसे बड़े महारथी के रूप में उभर चुका है। प्रत्यक्ष रूप से संचालित सेवाओं की सूचि आप विकिपीडिया पर ‘लिस्ट ऑफ़ गूगल सर्विसेज’ पन्ने पर अंग्रेजी में देख सकते हैं। गूगल की गैर व्यावसायिक कार्यों की जानकारी के लिए आप गूगल की वेबसाईट पर जा सकते हैं।

आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि गूगल अब तक 4000 से भी ज्यादा कम्पनियों का अधिग्रहण कर चुका है। अपने अस्तित्व में आने के बाद औसतन एक कम्पनी हर सप्ताह अधिग्रहित करता जा रहा है। यह ब्रांड, अपने भविष्य की योजनाओं से आपको सोचने पर विवश कर देगा।

अगर आंकड़ों की माने तो, गूगल का नाम उन दस बड़ी कंपनियों में नहीं जिन्होंने सन 2012 या 2013 में अपनी आय का प्रभावी हिस्सा, जनकल्याण पर खर्च किया हो। सन 2014 में लैरी पेज, पूर्व सीईओ, गूगल ने 177 मिलियन डॉलर मूल्य का स्टॉक का अनुदान दिया था। विशेष बात यह कि गूगल के अनुदान देने का तरीका कुछ अलग है।

यू ट्यूब पर अपने अभिनव चर्चाओं के लिए मशहूर टेड टॉक पर दिए एक साक्षात्कार के दौरान लैरी पेज ने कहा था कि वह गैर-लाभकारी संगठनों की बजाए नए और रचनात्मक विचारों वाले उद्यमियों और कारोबारियों को डोनेशन देना पसंद करते हैं। गूगल शिट फंडिंग के रूप में अनुदान को दर्शाता है। यानी वह अपने उद्देश्यों में सहभागी विचारों को आर्थिक प्रश्रय देने में विश्वास रखता है। फ़ोब्र्स की रेटिंग में गूगल, एप्पल और माइक्रोसॉफ्ट के बाद दुनिया का तीसरा सबसे विश्वसनीय ब्रांड है। जबकि फेसबुक सबसे तेजी से उभरता हुआ ब्रांड माना गया है।

गौरतलब है कि पिछले ही वर्ष, एप्पल ने गूगल से पिछले साल एक तिमाही में इतनी कमाई की जितनी गूगल पूरे साल नहीं कर सका। गूगल की कमाई 66 बिलियन अमेरिकी डॉलर रही जबकि एप्पल ने दिसंबर की तिमाही में ही 74.6 बिलियन डॉलर का करोबार किया।

आज जब भारतीय समाज युवा जोश से इन्टरनेट और तकनीक के मायाजाल में समाता जा रहा है। ट्वीटर और यूट्यूब, फेसबुक और गूगल ने लोकतंत्र के पहले से ही जर्जर हो चुके चौथे स्तम्भ मीडिया को और भी बौना बना दिया है। इच्छाओं और उस के परोक्ष क्रियान्वयन में बस ग्राफिकल दूरियां ही दिख रही है। ऐसे में डर इस बात का है कि इन्टरनेट का यह तिलिस्म किसी इंद्रजाल की तरह, मनुष्य की भावनाओं का मशीनीकरण कर उसके मूल सभ्यता के स्वरूप को विकृत न कर दे। हमें सावधान रहते हुए, निजी डाटा और इन्टरनेट के उपयोग के प्रति सचेत रहने के साथ साथ, पूर्ण रूप से भारतीय और जनोपयोगी सेवाओं के विकल्प को प्राथमिकता देनी होगी। हालिया दिनों में भारत सरकार द्वारा अपना ऑपरेटिंग सिस्टम बॉस का आना एक सकरात्मक पहल है। लेकिन इसकी निर्भरता लाइनक्स पर होना, पुन: सुरक्षा और स्वामित्व की दृष्टि से संदेह पैदा करता है। भारतीय वैज्ञानिको को संस्कृत जैसी सक्षम भाषा के प्रति उदासीनता दूर करनी होगी और संस्कृत के वैज्ञानिक प्रयोग से नव कीर्तिमानों को रचना होगा। तभी भारत सुरक्षित कल और एक नए स्वर्णिम युग की ओर अग्रसर होगा।

Published in Dialogue India, October 2014